Shailendra biography and interesting facts
Shailendra raj Kapoor relation : ‘सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, न हाथी है ना घोड़ा है, वहां पैदल ही जाना है।’ 1966 में हिंदी सिनेमा के पर्दे पर आई फिल्म ‘तीसरी कसम’ का यह गीत जब भी देखा-सुना जाता है तो श्रोता-दर्शक एक दूसरी ही दुनिया ही में चला जाता है। 5 दशक बाद भी इस गीत का जादू का बरकरार है, क्योंकि यह गीत जिंदगी की पूरी सच्चाई को बयां करता है। इस गीत को लिखा है- शैलेंद्र ने, जो अपनी तरह के अनूठे गीतकार थे। शैलेंद्र ने फिल्मी दुनिया को ज्यादा वक्त नहीं दिया और बहुत कम उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए, वरना हिंदी सिनेमा को कुछ और सुनहरे और खूबसूरत नसीब होते। इस बर्थडे (30 अगस्त 1923) को जानते हैं उनके बारे में रोचक बातें।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के शोमैन राजकपूर ऐसे जौहरी थे जो हीरे को पहचानने का हुनर रखते थे। उन्होंने बहुत से एक्टर और एक्ट्रेसेस फिल्म इंडस्ट्री को दीं। इसके अलावा वह संगीत में बेहद रुचि लेते थे, इसलिए उन्होंने फिल्मी संगीत में बहुत से प्रयोग भी किए, जो डांस के स्तर पर भी थे और गीत के स्तर पर भी। राजकपूर ने हीरे तलाशने और तराशने की कड़ी में एक और नगीना तलाशा- वह थे शैलेंद्र। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक राज कपूर अपनी फिल्म ‘आग’ की शूटिंग कर रहे थे। इस बीच मौका मिला तो उन्होंने शैलेन्द्र की एक कविता सुनी। कविता इतनी पसंद आई कि राजकपूर ने वह कविता फिल्म के लिए मांग ली। हैरत की बात यह है कि शैलेंद्र ने राजकपूर के प्रस्ताव को सीधे-सीधे यह कहते हुए ठुकरा दिया कि वह अपनी कविता का कारोबार नहीं करते। खैर अधिक समय नहीं बीता और वक्त ने शैलेंद्र के साथ सितम किया, जिससे वह परेशान हो गए। दरअसल, शैलेंद्र की मां की अचानक तबीयत बिगड़ गई। वह अपनी परेशानी और मजबूरी लेकर राजकपूर के पास गए। इसके बाद बिना झिझक 500 रुपये उधार मांग लिए। राजकपूर ने तुरंत 500 रुपये दे भी दिए और वजह भी नहीं पूछी। इसके बाद राजकपूर और शैलेंद्र के बीच मुलाकातों का सिलसिला चल पड़ा। फिर दोस्ती भी हो गई। इसके बाद राजकपूर की फिल्मों के लिए शैलेंद्र ने मरते दम तक गाने लिखे। दरअसल, शैलेंद्र अपने मित्र राजकपूर के दुलारे बन गए।
शैलेंद्र का जन्म 30 अगस्त, 1923 को रावलपिंडी (अविभाजित भारत) में हुआ था। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, शैलेंद्र के जन्म पर पिता ने पूरे इलाके में लड्डू बंटवाए थे। कहते हैं ना कि वक्त कभी एक सा नहीं रहता है। अच्छे दिन आए थे तो बुरे दिन भी आए। शैलेंद्र के परिवार के साथ भी ऐसा हुआ। परिवार आर्थिक परेशानी में आ गया। हालात इस कदर खराब हो गए कि पिता ने रावलपिंडी छोड़कर मथुरा आने का फैसला कर लिया। इसकी भी एक वजह थी। दरअसल, शैलेंद्र के बड़े भाई मथुरा में रेलवे में नौकरी किया करते थे। इसके बाद शैलेंद्र का पूरा बचपन मथुरा में बीता। स्कूली शिक्षा मथुरा के सरकारी स्कूल से हुई। आगे की पढ़ाई शैलेंद्र ने इंटर तक मथुरा के ही राजकीय इंटर कॉलेज से की। शैलेंद्र बचपन से ही पढ़ाई में बहुत अच्छे थे। बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि शैलेंद्र को इंटर की परीक्षा में पूरे उत्तर प्रदेश में तीसरा स्थान मिला था। उनकी रुचि साहित्य में थी। वह साहित्यिक किताबें पढ़ते थे। वह बचपन से ही कविताएं भी लिखने लगे थे। इसके साथ ही अपनी कविता वह डफली बजाकर गाते थे। यह जानकर भी हैरत होगी कि बचपन से ही उनकी कविता उस दौर की चर्चित पत्र-पत्रिकाओं में छपा करती थी।
महान गीतकार शैलेंद्र का परिवार मूलरूप से बिहार का रहने वाला था। उनका परिवार बिहार के भोजपुर का था। नौकरी की तलाश में फ़ौजी पिता की तैनाती रावलपिंडी में हुई तो शिफ्ट होना पड़ा। यह भी कहा जाता है कि रिटायरमेंट के बाद शैलेंद्र के पिता अपने एक दोस्त के कहने पर मथुरा में बस गए। यहां पर उनके भाई पहले से ही रेलवे में नौकरी करते थे। उनकी बेटी अमला शैलेंद्र ने एक इंटरव्यू में कबूल किया है कि बाबा (शैलेंद्र) कम उम्र में ही समझदार हो गए थे। उन्हें भी परिवार की जिम्मेदारियों का एहसास हो गया था। हालांकि शैलेंद्र को वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के वक़्त कॉलेज के साथियों के साथ जेल जाना पड़ा। जेल से छूटने के बाद पिता ने काम तलाशने की बात कही, क्योंकि घर की जरूरतें पूरी करने के लिए परिवार में कमाने वाले वह इकलौते थे। हिंदी साहित्य के प्रमुख विद्वान रामविलास शर्मा तो गीतकार शैलेंद्र को क्रांतिकारी कविताओं के कवि मानते हैं। हिंदी साहित्य के महान आलोचक नामवर सिंह उनको पहला दलित कवि कहते हैं। नामवर सिंह ने उन्हें लोकधर्मी और कलात्मक शख्सियत बताया था।
जनकवि गीतकार शैलेन्द्र की पिता केसरी लाल मूलरूप से बिहार के रहने वाले थे। वह रेलवे में अप्रेंटिस के लिए बंबई गए थे, लेकिन लंबे संघर्ष के बाद गीतकार बन गए। दरअसल, शैलेंद्र ने वर्ष 1947 में अपने कैरियर की शुरुआत मुंबई में रेलवे की नौकरी से की। शैलेंद्र भावुक हृदय वाले कवि थे। रेलवे की नौकरी उनके मिजाज को सूट नहीं कर रही थी। रेलवे के दफ्तर में अपने काम के समय भी वह अपना ज्यादातर समय कविता लिखने मे हीं बिताया करते थे। जाहिर है कि सीनियर अफसर नाराज भी रहते थे, इसलिए शैलेंद्र देश की आजादी की लड़ाई से जुड़ गए। आजादी के आंदोलन में अपनी सहभागिता करके वह अपनी कविता के जरिए वह लोगों में भाव जगाने लगे।
राजकुमार से शैलेंद्र की दोस्ती हो चुकी थी। राजकपूर उन्हें कविराज कहकर बुलाते थे। इस बीच राजकपूर ‘बरसात’ फिल्म का निर्माण कर रहे थे। फिल्म के लिए शैलेंद्र ने दो गाने ‘हमसे मिल तुम सजन’ और ‘पतली कमर है’ लिखे। ‘बरसात’ फिल्म के टाइटल सॉन्ग ‘हमसे मिल तुम सजन’ ने कमाल कर दिया। शंकर जयकिशन का म्यूजिक और राजकपूर और नरगिस की अदाकारी पर दर्शक लट्टू हो गए। यह गाना जितना देखने में अच्छा लगता है उतना ही सुनने में। इसके बाद ‘बरसात’ से लेकर ‘मेरा नाम जोकर’ तक राजकपूर की सभी फिल्मों के थीम सॉन्ग शैलेंद्र ने ही लिखे। इसके बाद दोनों का साथ 16-17 सालों तक बना रहा। बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि शैलेंद्र ने ‘नया’, ‘बूट पॉलिश’, ‘श्री 420’ और ‘तीसरी कसम’ में एक्टिंग भी थी। वर्ष 1960 में आई फिल्म ‘परख’ के संवाद भी शैलेंद्र ने लिखे थे।
चर्चित साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी पर शैलेंद्र ने ‘तीसरी कसम’ फिल्म का निर्माण शुरू किया। निर्माण के दौरान पैसे खूब खर्च हुए। इस दौरान शैलेंद्र को आर्थिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा। वे कर्ज में डूब गए और फिल्म की नाकामी ने उन्हें बुरी तोड़ दिया। फिल्म रिलीज हुई तो पर्दे पर दम तोड़ गई। फिल्म ‘तीसरी कसम’ की असफलता से शैलेंद्र टूट गए। उन्हें कई बार दिल का दौड़ा पड़ा। इस दौरान उन्होंने शराब का सहारा लिया, जिससे शरीर का बहुत नुकसान पहुंचा। 1966 में आई शैलेंद्र की पहली और आखिरी फिल्म ‘तीसरी कसम’ फिल्म से बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन यह बॉक्स-ऑफिस पर बुरी तरह फ्लॉप रही। बाद इस फिल्म ने कमाल किया। फिल्म देखी, सराही और पुरस्कृत की गई। इतना ही नहीं फिल्म ने राष्ट्रीय पुरस्कार जीता, लेकिन इससे पहले शैलेंद्र फिल्म की असलफता से निराश हो चुके थे।
शैलेंद्र उम्र भर गीत और कविताएं लिखते रहे। स्वास्थ्य ज्यादा खराब हुआ तो शैलेंद्र को 13 दिसंबर 1966 को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक,शैलेंद्र ने अपने मित्र और फिल्मकार राजकपूर को आरके कॉटेज में मिलने के लिए बुलाया। शैलेंद्र अपने वादे के पक्के थे, इसलिए उन्होंने राजकपूर से उनकी फिल्म मेरा नाम जोकर के गीत ‘जीना यहां मरना यहां’ को पूरा करने का वादा किया। किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। 14 दिसंबर 1966 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। यह भी इत्तेफाक है कि उसी दिन राजकपूर का जन्मदिन भी था।
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